"शोषण के दीप" (Shoshan ke Deep)
रक्त दीप में (In Raktdeep)
- गणपति चंद्र भंडारी (Ganpati Chandra Bhandari)


पड़ रही कड़ाके की सर्दी, ठंडा है मास दिसम्बर का ।
चल रहा पवन है सनन्-सनन्, चू रहा कलेजा अम्बर का ।
धरती ठरती है पैर तले, ऊपर से झरता है अम्बर ।
इस हाड़ कंपाती सर्दी में, नंग पैरों, भागे पथ पर ।1

यह कौन सिहरती जाती है. यह कौन ठिठुरती जाती है।
भूखे भारत की प्रतिमा सी, यह कौन हररती जाती है ।
तन पर है इक लटी दुपटी, कुछ इधर फटी कुछ उधर फटी ।
उसमें ही निज कृश तन समेट, जा रही चली सिमटी-सिमटी ।2

जब शीत पवन के झोकों से, पट उड़ जाता है फरर-फरर ।
कॅप जाता तन का रोम-रोम, रह जाता अंतर सिहर-सिहर ।
तन फटा हुआ, मन फटा हुआ, हो रहे वसन भी तार-तार ।
जिनके भीतर से झॉक- झॉक, निर्धनता करती है पुकार ।3

किस शाहजहाँ हतभाग की, मुमताज सिसकती जाती है ।
देखो भारत की भूख स्वयं, साकार सिसकती जाती है ।
यह भारत की मजदूरिन है, साँपों को दूध पिलाती है ।
अज्ञान भरी निज लोहू से, शोषण के दीप जलाती है।4

इसके पिछे-पिछे कोई ओढे चलता मोटा कम्बल ।
जिसका गौरव मूछों में है, लाठी में सब प्रश्नों का हल ।
है दम्भ खेलता चेहरे पर, गति में पद-पद पर अहंकार ।
अपनी बर्बरता के गुमान में, चलता है सिना उभार ।5

उसको न देश से है मतलब, उसको न चाहिए आजादी ।
उसकी रोटी बस बनी रहे, चाहे जग की हो बरबादी ।
यह ठाकुर का कारिंदा है, जो केवल हुक्म बजाता है ।
इस दमयंती के साथ तभी तो, लगा व्याघ-सा जाता है ।6

वह इसे घेरने आता है, वह इसे "टोलने" आया है ।
ठाकुर ने कुछ मजदूरों को, सूर्योदय पूर्व बुलाया है।
हो रही मरमत महलों की, ठाकुर की बेटी ब्याहेगी ।
हर घर के एक-एक प्राणी से, बेगार रोज ली जाएगी ।7

पति ज्वर से पीड़ित हुआ, इससे पत्नी जा रही वहाँ ।
उँचे से टीले पर ठाकुर का, बना हुआ है महल जहाँ ।
पति की चिन्ता छोड़ इसे, ठाकुर का महल बनाना है।
मजदूरी में गाली, धक्के, लाते खाकर आना है ।8

अपनी गोदी में लिये हुए, अपने अभिशाप की गठरी ।
यह चली सरकती जाती है, नारी का रूप धरे ठठरी ।
यह भारत की बेगारिन है, साँपो को दूध पिलाती है ।
अज्ञान भरी निज लोहू से, शोषण के दीप जलाती है।9

अपने बच्चे को पत्थर पर बैठाकर चिथड़ो में लपेट ।
गंगा मजदूरिन भी उतरी, चूने में निज आँचल समेट ।
घुटनों तक चूने में डूबी, पिलती जाती ले राम नाम ।
भारत की बदनसीब बेटी, क्या रहा तुम्हारा यही काम ।10

इतने में ग्वाला दूध लिए, ड्योढ़ी पर पधारने आया ।
पर नाम दूध का सुनते ही, गंगा का बेटा चिल्लाया।
"माँ! भूख लगी, माँ दूध पिला, मैं दूध पिऊँगा, दूध पिला”।
गंगा ने पुचकारा, लेकिन, वह पसर गया, रोया, मचला ।11

तब उधर कुंवरजी लिए हुए, कुत्ता ड्यौड़ी पर आते है ।
फिर बड़े प्यार से बैठा गोद में, उसको दूध पिलाते है।
वह लिपट-चिपट माँ से बोला, क्यों नही पिलाती दूध मुझे।
इतने में उबला कारिन्दा, क्यों बैठी री ? क्या हुआ तुझे ।12

बच्चा रोता है रोने दे, रोने से क्यों घबराती है ।
टुकड़ो के तो लाले पड़ते, औ साध दूध की आती है।
फिर विवश उठी वह कंगालिन, शोषण का चक्र घुमाने को ।
अपने बच्चे के आँसू पी, कुत्तो का दूध जुटाने को ।13

आखिर जब धीरज छुट गया, बच्चे का क्रंदन सुनसुन कर ।
बेटे की भूख मिटाने माँ, लपकी चुल्लू में चूना भर ।
हा आज दूध के बदले में कान्हे का जी बहलाने को ।
तैयार जसोदा होती है, चूने का घोल पिलाने को ।14

फिर भी प्रलय नही होता, फटती न किसी की छाती है।
मंदिर में देव नही कंपते, धरती न रसातल जाती है।
पर कौन जगत में निर्धन का, जो दहल उठे जो उठे कॉप ।
नरपाल पालते कुत्तों को, लक्ष्मीपति लक्ष्मी के गुलाम ।15.

मजदूर तुम्ही जादूगर हो, मिटटी से महल बना देते ।
हो तुम्ही शक्ति की महा बाढ़, महलो की जड़े हिला देते ।
तुम उठो घनी आंधी बनकर, जग पर नंगो भूखो छाओ ।
मानव के लोहू से जलने वाले, ये रक्त दीप बुझा आओ।16.


"पन्ना धाय" (Panna Dhai)
-सत्य नारायण गोयंका (Satya Narayan Goyenka)


चल पड़ा दुष्ट बनवीर क्रूर, जैसे कलयुग का कंस चला
राणा सांगा के, कुम्भा के, कुल को करने निर्वंश चला

उस ओर महल में पन्ना के कानों में ऐसी भनक पड़ी
वह भीत मृगी सी सिहर उठी, क्या करे नहीं कुछ समझ पड़ी

तत्क्षण मन में संकल्प उठा, बिजली चमकी काले घन पर
स्वामी के हित में बलि दूंगी, अपने प्राणों से भी बढ़ कर

धन्ना नाई की कुंडी में, झटपट राणा को सुला दिया
ऊपर झूठे पत्तल रख कर, यों छिपा महल से पार किया

फिर अपने नन्हें-मुन्ने को, झट गुदड़ी में से उठा लिया
राजसी बसन-भूषण पहना, फौरन पलंग पर लिटा दिया

इतने में ही सुन पड़ी गरज, है उदय कहां, युवराज कहां
शोणित प्यासी तलवार लिये, देखा कातिल था खड़ा वहां

पन्ना सहमी, दिल झिझक उठा, फिर मन को कर पत्थर कठोर
सोया प्राणों-का-प्राण जहां, दिखला दी उंगली उसी ओर

छिन में बिजली-सी कड़क उठी, जालिम की ऊंची खड्ग उठी
मां-मां मां-मां की चीख उठी, नन्हीं सी काया तड़प उठी

शोणित से सनी सिसक निकली, लोहू पी नागन शांत हुई
इक नन्हा जीवन-दीप बुझा, इक गाथा करण दुखांत हुई

जबसे धरती पर मां जनमी, जब से मां ने बेटे जनमे
ऐसी मिसाल कुर्बानी की, देखी न गई जन-जीवन में

तू पुण्यमयी, तू धर्ममयी, तू त्याग-तपस्या की देवी
धरती के सब हीरे-पन्ने, तुझ पर बारें पन्ना देवी

तू भारत की सच्ची नारी, बलिदान चढ़ाना सिखा गयी
तू स्वामिधर्म पर, देशधर्म पर, हृदय लुटाना सिखा गयी


"नीड का निर्माण"
-हरिवंश राय बच्चन


नीड का निर्माण फिर फिर, नेह का आव्हान फिर फिर
यह उठी आँधी कि नभ में, छा गया सहसा अँधेरा
धूलि धूसर बादलों ने, भूमि को इस भाँती घेरा
रात सा दिन हो गया, फिर रात आई और काली
लग रहा था अब न होगा, इस निशा का फिर सवेरा
रात के उत्पात भय से, भीत जन जन भीत कण कण
किंतु प्राची से उषा की, मोहिनी मुस्कान फिर फिर
नीड का निर्माण फिर फिर, नेह का आव्हान फिर फिर

क्रुद्ध नभ के वज्र दंतों में, उषा है मुसकराती
घोर गर्जनमय गगन के, कंठ में खग पंक्ति गाती
एक चिडिया चोंच में तिनका लिए, जो जा रही है
वह सहज में ही पवन , उनचास को नीचा दिखा रही है
नाश के दुःख से कभी, दबता नहीं निर्माण का सुख
प्रलय की निस्तब्धता में, सृष्टि का नवगान फिर फिर
नीड का निर्माण फिर फिर, नेह का आव्हान फिर फिर